Thursday 17 July 2014

ऐसा भी होता है...

एक दिन कॉलेज के ऑडिटोरियम के सामने वाले डायस पे मैं, मेरे रूममेट संजीव, राजीव, और दो दोस्तों, प्रियदर्शी और राहुल शर्मा, ने बैठक लगाई. ऐसा होता है लाइफ में, की बकवास करने का और समझने का कोई तात्पर्य नहीं होता है. पर बकवास करनी होती है. हर कॉलेज में एक जमावड़ा केंद्र होता है. वो बदलता रहता है, आवश्यक्तानुसार. कभी IT Park की सीढियां, कभी ऑडिटोरियम के सामने वाला डायस. हमारे 3100 लोगो को बिठाने की औकात रखने वाले ऑडिटोरियम के सामने तब एक मैदान था. वहाँ Bombay Rockers और श्रेया घोषाल जैसे कलाकार आके हमारे विश्वविद्यालय के (तब) 50,000 विद्यार्थियों का मनोरंजन करने के लिए आया करते थे. उनकी फूटी किस्मत होती थी, जो वे यहाँ थे. वे आते थे हमारा मनोरंजन करने पर हमारे यहाँ कलाकारों की कद्र कुछ ख़ास थी नहीं. मंच तक लोगो का प्रोत्साहन पहुचे न पहुचे उनके पत्थर ज़रूर पहुचते थे. श्रेया घोषाल ने तो ये तक कहा था, “guys, when I said we’ll ‘Rock The Show,’ I didn’t expect you guys will literally do it.” ख़ैर, मैदान में दो मंच थे. एक ऑडिटोरियम के ठीक सामने, मैदान के बीचों बीच था, एक बिलकुल दूर कोने में था. वहाँ से मेडिकल कॉलेज शुरू हो जाता था, और इंजीनियरिंग के कैंपस की कहानी उस द्वार परे पूरी हो जाती थी.

मैं उस समय की बात कर रहा हूँ जब सिर्फ कोने वाला मंच था. मैदान के बीच वाला मंच तब नहीं बना था. उस डायस पर रैंकिंग के लिए एक लकड़ी का प्लेटफार्म था. जिसपे खड़े होकर स्वर्ण, चन्द्र, और कांस्य पदक (Gold, Silver, and Bronze medals) बांटे जाते थे. शाम काफी हो गयी थी, और अगर मैं गलत नहीं हूँ तो रात के आठ, साढ़े आठ कुछ बज रहे होंगे. तो अँधेरा था काफी, उस वक़्त.  मैं उन चार और कुत्तों से फर्जी की बातें कर रहा था. ऐसे दिनों में सिवाए एक दुसरे का मज़ाक उड़ाने और जीवन में नारी भाग्य न होने के अलावा कुछ ख़ास बातें नहीं थी. वैसे मुझे ऐसा दुखड़ा गाने की ज़रुरत नहीं है. तब जादा बातें होती थी करने के लिए. अब तो career का रोना गाना रह गया है. जब शादी होगी तो परिवार का रोना गाना रह जाएगा. कॉलेज में तो रोने की वजह भी बहुत थी, अब तो सिर्फ परिवार और नौकरी है.

तो उस रात को मेरे मन में एक अजीब सा सवाल उठा. “यार, ये फ़ोन पे लौंडियाबाजी कैसे होती है?” मेरा सवाल सुनके मुझे judge मत करिए. मेरी ये आज तक समझ ही नहीं आया की बिना किसी connection के, या बिना physical presence के आप किसी लड़की को कैसे पटा सकते हैं. और उस दिन मुझे ये भरोसा हो गया की कोई दूसरा करे या न करे, मुझसे न हो पाएगा. जब मेरे बैच के चंपुओं ने अच्छी खासी बंदियां पटाई, तो मैंने सिर्फ, और सिर्फ, out of curiosity पुछा. अगर आपको इस बात का कोई संदेह है की मैं desperate था तो कोई संदेह मत रखिये. मैं स्पष्ट रूप से कहता हूँ मैं अनंत काल से desperate हूँ.


तो मेरे दोस्तों, प्रियदर्शी श्रीवास्तव और राहुल शर्मा, ने बारी बारी जय गुरुदेव के कैंप वाली लड़कियों को फ़ोन किया, और फ़ोन करने के दस सेकंड के अन्दर अन्दर दूसरी तरफ से आवाज़ आई जय गुरुदेव. जब जय गुरुदेव का जुगाड़ ही fit करना था तो मैं अपनी किसी classmate को ही कॉल न कर लेता? मेरा doubt stalker perspective से था. और ऐसा भी क्या stalker, कॉलेज में कॉलेज के link के सहारे एक से एक भोंपू बजे दुनिया की अनजान आशिकी के. मैं तो शरीफ घर का सीधा सादा लौंडा था. दिक्कत यही थी की नासमझ था. जब ज़माने के धक्के और धोखे देखे, दोस्तियाँ टूटते देखीं और बदलते इंसान देखे तो समझ आया हमारा प्यार सिर्फ हमारे hormone  का output था. आज अगर मैं उसी डायस पे खड़ा होता तो किसी और लड़की को फ़ोन लगता, पर उस वक़्त, जैसा मैंने कहा की हमारी आशिकी hormonal trigger से जादा कुछ नहीं थी. तो मैंने श्रुतिका मेहता को फ़ोन लगाया.
***
श्रुतिका मेहता हमारे कॉलेज की जानी मानी माल थी. माल यानि कमसिन हसीना, टोटा, sexy lady, pretty woman इत्यादि. अच्छे अच्छे लौंडों ने केवल उसकी झप्पी के चक्कर में ऐसी ऐसी धक्कियाँ खाई थी, की अगर धक्का लगने के बाद कोई उन ढाचों को फूँक मार दे तो संसार के कणों में सम्मिलित होती हुई आत्माएं नज़र आनी शुरू हो जाएंगी. उस लड़की के चक्कर में बड़े बड़े पेहेल्वानों ने हाथापाई का जरिया अपनाया. कुछ सफल हुए, कुछ धराशाई, मगर असली सफलता किसी एक को मिली वो कॉलेज से ग्रेजुएट हमसे पहले हो गया. दूर दराती हवाओं से उडती खबरें मिली थी हमे श्रुतिका मेहता single है. जवानी के लम्हे कहो, खुशिओं के दिन कहो, या unquenchable desperation. मैं सच कहता हूँ, हरेक धड़कन मेरी भांगड़ा पेल पे उतर आई थी, उस दिन.
मैंने अपने जीवन में उस लड़की को सिर्फ तीन फूट की दूरी से देखा था, किसी दोस्त बात करते हुए. प्रियदर्शी श्रीवास्तव उन में से एक थे. तो उनके पास, ज़ाहिर सी बात है, उसका फ़ोन नंबर भी था. अब मैं असमंजस में था. क्यूंकि अपनी औकात तो थी नहीं. न ही अपना character था. मैंने आजतक किसी random लड़के से बात न की होगी फ़ोन करके ये तो अपने कॉलेज की मिस वर्ल्ड से कम न थी. वो बात अलग है अब मैं कभी कभी सफ़र बांटने वाले सैलानियो से चार कहानिया चुरा लेता हूँ, या चंद किस्से सुना देता हूँ. पर वो भी बहुत कम होता है, और कभी कभी. और अब मैं इस दुर्घटना को चार साल पीछे छोड़ भी आया हूँ. तब मैं जवान था, समझ कम थी जोश जादा था. मौका लगे हाथ चौका लगा दूँ सोचा.
पर फिर भी मैं असमंजस में था. अगर इंसान की पकड़ उडती पतंग की ऊंचाई सी नपती, तो मैं इस ब्रह्मांड के कोने तक पहुँचने वाली रौशनी की कसम खा के कहता हूँ ये लड़की मेरे मंझे की पहुँच से परे थी.  और मैं इसे जानता भी नहीं था. अभी भी नहीं जानता हूँ. अन्दर से अकल की आवाज़ कह रही थी, “साले, आईने में तेरी परछाइयां माथा पकड़ लेती हैं तेरी शकल देख के, बिना मतलब जेम्स बांड मत बन.” पर अकल की सुने या जज़्बात की, जो इंसान ये समझ ले तो इतिहास में जंग और संग्राम सिर्फ dictionary में पाए जाते. पर ऐसा कभी होता थोड़ी है. तो हमने जज्बातों की सुनी, और कूद गए नरक में.
***
मैंने प्रियदर्शी को बोला, “यार, अगर फ़ोन लगाना ही है, तो किसी ऐसी लड़की को लगाया जाए जो जानती ही न हो, बिलकूल. ऐसा ही होता है न?”
“किसको फ़ोन लगाएगा तू?”
“श्रुतिका मेहता को.”
ये सुनते ही राहुल शर्मा की मुह में बम फटा. और चिल्लाया, “अबे लगाने दे. आज तो हो जाए भैंचो. ए हे हे, हेहेहेहे.”

प्रियदर्शी श्रीवास्तव थोड़े
skeptical थे मगर उन्होंने अपने फ़ोन की लिस्ट में नंबर ढूँढा, और मुझे दे दिया.

वो राहुल शर्मा हंसी मैं नहीं भूलूंगा. साला लोट पोटइयाता शर्मा अचानक से मजे मूड में आ गया. उस कुत्ते की आँखों में कमीनापन reflect हो रहा था. उसे मालूम था आज दिवाली है और मैं इस दिवाली का सबसे बड़ा पटाखा. उसे लग रहा था मैं ऐसा फटने वाला हूँ की आसमान में तारे दिखने बंद हो जाएँगे.  और बस, जैसे तीसरी के लौंडे पहली दिवाली का राकेट छुड़ाते हैं, वैसे इन्होने मुझे छुड़ा दिया. और फ़ोन नंबर दे दिया.

***

पूरे confidence के साथ मैंने अपने फटीचर फ़ोन में मौतरमा का नंबर मिलाया. प्रियदर्शी दोस्ती निभा रहा था, उसने मुझसे कहा था की तू short film के बारे में बात करना, बेकार की बात करेगा तो कोई बात बढ़ा वढा नहीं पाएगा. मगर हम तो जेम्स बांड मोड में थे. हमने फ़ोन लगाया, उसने फ़ोन उठाया, और हमने कहा “Hi, I am Max.”

जितनी इस जीवन में हिम्मत हमने बटोरी थी दूसरो के साथ रह रह कर, hostel में सबसे लड़ के, झगड़ के, कोशिश करके हमने अपने आप को इस लायक तीन साल कॉलेज में बिता के बनाया की किसी नकाब के पीछे खुद को छिपाना न पड़े. किसी भी दोस्त से पूछ लो, कोई कहेगा मैं बेवक़ूफ़ हूँ, कोई कहेगा मैं नासमझ हूँ, कोई कहेगा मैं सनकी हूँ. पर मैं जानता हूँ कोई दोस्त मेरा ये नहीं कह सकता की मैं कोई मुखौटा लगाए रखता हूँ. मैंने खुद को पूरी कोशिश करके इस एक मुकाम पे पहुँचाया, अपना अस्तित्व बनाया की कम से कम अपने दोस्तों के आगे कोई दूसरा इंसान न दिखाई दे. और शर्मिंदगी का उदाहरण हमसे लो. जिससे दोस्ती करने की उम्मीद से ये तमाशा शुरू किया, उसको शुरुआत में ही एक फर्जी नाम दिया. बिलकुल शुरुआत में. तो अब तो आपको पता ही है क्या होने वाला है. हम तो दिवाली के पटाखे थे. फट गए. सामने शर्मा कूद रहा था, दौड़ रहा था, लफंटरों की तरह. संजीव, राजीव ने हसना शुरू कर दिया था, प्रियदर्शी बोल रहा था, “अबे, movie, movie!

पर होनी को कौन टोके... “Hi, I am Max… Uh, actually, that’s not my real name… Uh, actually, can we be friends? Uh, basically, I… uh, I wanted…to actually, socialize… Actually, I uh, actually.”
वो बेचारी, सोच रही होगी कहाँ कहाँ से पैदा होते हैं नमूने ऐसे, रोज़ कोई न कोई टकरा जाता है, “Do you have another word in your vocabulary, other than ‘actually’?”

सच्चाई का सामना नर को एक नारी ही करा सकती है. सम्पूर्ण दुनिया में सर्वश्रेष्ठ सद्भावना अगर किसी इंसान को प्राप्त करनी हो, तो उसे स्त्री की समझदारी और सहानुभूति का सम्मान करना चाहिए. यहाँ पर उसने बड़ी सरलता से मुझे ये याद दिलाया की मैं flop हो गया हूँ. मुझे माफ़ी मांग लेनी चाहिए और चुप चाप खिसक लेना चाहिए. ऐसे में मैंने अपना ‘actually, actually’ का भजन लगाए रखा और उसने मेरा फ़ोन मेरी already tormented आत्मा को समझते हुए काट दिया. Moral responsibility के नाते मैंने उसे apologize करने के लिए दुबारा फ़ोन लगाया, माफ़ी मांगी, उसने मुझे कहा उसे नए दोस्तों की ज़रुरत नहीं है, और फ़ोन काट दिया.

***

टी.वी. पे Red Bull gives you wings के विज्ञापन की तरह मैं ज़मीन पे खड़े खड़े गोते खा रहा था. मेरा ब्लड प्रेशर कार्टून में दिखाए जाने वाले हथोडा गिराओ घंटा बजाओ वाले घंटे के striker की तरह आसमान में shoot कर गया था, ऑडिटोरियम के ऊपर का आसमान तूफानी कड़कती पुरानी हिंदी फिल्मों वाली बिजली की तरह घड़ घड़ा रहा था. मुझे चक्कर आ रहा था, जब मैंने महसूस किया प्रियदर्शी और शर्मा डायस पे ranking platform के पीछे मुर्गे की तरह अपने आप को किसी कहर से बचाने की कोशिश कर रहे थे.  अंग्रेजी में कहा जाए तो, ‘they were ducking behind the ranking platform.’ अचानक से प्रियदर्शी और शर्मा को ये समझ आया की मुझे उनकी आवाजें कुछ सुनाई शायद नहीं दे रहीं हैं. वो दोनों उठे और उन्होंने मुझे संभाला, और थोडा शांत किया. मैंने अपनी दुर्दशा भाँपी और महसूस किया मेरी हड्डियां तक काँप गयी थी.
आज जब उन यादों की गलियों पे दुबारा चार कदम रखे तो दोस्तों ने ऐसा ही एक दूसरा हादसा, इस हादसे के बहुत, बहुत दिनों पहले का याद दिलाया. वो इतना traumatic नहीं था, पर हड्डियाँ मेरी उस में भी काँप गयी थी. वो कहानी किसी और दिन के लिए. पर इस हादसे ने मुझे हमेशा के लिए थोडा disabled छोड़ा. मैं अपनी बेवकूफी justify नहीं करूँगा. इसे सीधे शब्दों में कहा जाए तो, ये stalking ही है. और वही मैं सोच रहा था उसके बाद, की अगर कुछ बवाल हो गया तो? इसने अपने माँ-बाप को बताया तो? कुछ नया लफड़ा न हो जाए कहीं. तरह तरह की बातें दिमाग में आई. और दोस्तों ने कहा ये उसका रोज़ का ही है. कोई न कोई नमूना chance पे dance का रोज़ try करता है. कोई बात नहीं.


उस दिन कसम खाई, की फ़ोन पे ये सब तमाशा करना बेकार है. कुदरत ने साथ बनाया तो साँसे किसी और, किसी बेहतर बगिया में लिखी होंगी. जहां धडकनों किए लिए दवाई न लेनी पड़े शायद. पर हाँ, और चाहे कुछ भी हो, कभी कभी मंझे की उपलब्धि से परे, थोड़ी और ऊँची पतंग उडानी चाहिए. क्या पता डोर उम्मीद से लम्बी निकले. बस आसमान साफ़ रहे तो बेहतर.

True Story.

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